Wednesday 26 December 2012

कुंठन

कुंठित मन और संकुचित जीवन
अस्त- व्यस्त   सा है तन-  मन
ना  कोई सुनता व्यथा ह्र्दय  की
बिखरा  है   जीवन  में   गम

जीवन  में  थी   अद्भुत   आभा
लीन थे हर पल हर दम  हम
किसे  पता  लाएगी एक दिन
आंधी पतझड  का   मौसम

अपनों  ने ही लूटा   हमको
गैरों  में  था  कहां  ये  दम
घर  का  भेदी  लंका  ढावे
सिद्ध  हुई  ये  बात  सनम

मधुर राग जिस कंठ से गाए
भूल चुके हम वो सरगम
वीणा सी थी झंकृत होती
सरस राग  का था  संगम

रोना- धोना  बहुत हो चुका
बहुत मनाया था  मातम
कमर कसी  है अब तो हमनें
किस्मत पर छोडा   जीवन

कश्ती है  मझधार में अपनी
मांझी  भी  तो स्वयम है हम
बीच  समंदर  गहरा   पानी
लहरों  से  है  अब   अनबन

लहरों  से  जा  कह   दे कोई
बंद  करे  अपना   ये सितम
डटे रहेंगे सांस है  जब   तक
नहीं   हटेंगे     पीछे    हम ।




 

Monday 24 December 2012

विडम्बना

क्यों कहते हो सब समान है
सब ईश्वर की संतान है
गर ऐसा है तो है क्यों नहीं
सबके सब धनवान  है
कोई जी रहा बिन रोटी के
कोई फांकता पकवान है
गर पूछो ये बात तो कहते
मेरा भारत महान है
कोई है  जीता भूखा नंगा
कोई ओढे रेशमी परिधान है
राज है क्या इस विडम्बना का
क्या ये राष्ट्र की शान   है ?
कर लो परहित दो गरीब को
इसका भी सम्मान   करो
अरे ! ये भी तो अपना भाई है
ना दिल में  अभिमान  करो
कर लो थोडा पुण्य  काम
इसके सर पर भी ताज़ रखो
इतनें से ही खुश हो लेगा वो
इस मानवता  की लाज रखो
क्यों कहते हो सब समान है
सब ईश्वर की  संतान  है
गर ऐसा है तो है क्यों नही
सब के सब धनवान  है ।